महिला दिवस के मौके पर महिला श्रम और सुरक्षा के मुद्दे पर रविवार को परिसदन में परिचर्चा सम्पन्न
महिला दिवस के मौके पर महिला श्रम और सुरक्षा के मुद्दे पर रविवार को परिसदन में परिचर्चा सम्पन्न
समाज के विभिन्न क्षेत्र के महिलाएं , परिसदन मेदिनीनगर में महिला मुद्दों पर परिचर्चा में शामिल हुई, जिसकी युवा नेत्री दिव्या भगत ने अध्यक्षता और छात्र नेत्री चंद्रकांती ने संचालन किया, मौके पर
लोहरदगा जिले के मनरेगा लोकपाल पर नियुक्त पलामू की बेटी इंदु तिवारी मुख्य अतिथि , और सामाजिक कार्यकता सुषमा बौद्ध विशिष्ट अतिथि के तौर पर अपने विचार रखे, एवं सदर अस्पताल के कर्मचारी मोर्चे से बिमला देवी और रुखसार परवीन ने अपने विचार रखे। साथ सेवा निवृत्ति महिला प्रसार पदाधिकारी कांति कुमारी में अपने अनुभव और संघर्ष को साझा किया, युवा उद्यमी और फैशन डिजाइनर जैसी भगत ने भी महिलाओं को पूंजीवाद के जरिए कैसे अधिक मुनाफे के लिए महिलाओं के शोषण करती है, कैसे किसी वस्तु को बस गुलाबी रंग में रंग कर ज्यादा दाम में बेच एक तरीके से महिलाओं पर “पिंक टैक्स” लगाती है, जो बाजारीकरण कर महिला शोषण का एक उदाहरण है, छात्र नेत्री शिला और चंचल ने भी अपने विचार रखे, और रंगकर्मी काजल में साहित्य के जरिए कैसे महिलाओं ने अपनी आवाज उठाई है पर रोशनी डाली, अंत में महिलाओं को समर्पित एक खूबसूरत कविता से छात्र नेता गौतम दांगी ने सभा की समाप्ति की।
परिचर्चा का मसौदा निम्न कुछ इस प्रकार है:
परिचर्चा :
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: महिला श्रम, सुरक्षा और पितृसत्ता
भूमिका
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) श्रमिक महिलाओं के संघर्षों और बलिदानों की याद दिलाता है। इसकी जड़ें समाजवादी और मजदूर आंदोलनों में हैं। 1910 में क्लारा ज़ेटकिन ने इसे मनाने का प्रस्ताव रखा, और बाद में अलेक्ज़ांद्रा कोल्लोंताई के प्रयासों से सोवियत संघ में इसे आधिकारिक मान्यता मिली।
महिला मुक्ति केवल कानूनी अधिकारों का प्रश्न नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक संघर्ष है। सिमोन द बोउवार ने दिखाया कि कैसे पितृसत्ता महिलाओं को “दूसरा लिंग” बनाकर उनके श्रम को अदृश्य बना देती है, और सिल्विया फेडेरिची ने घरेलू श्रम के शोषण को उजागर किया। रोसा लक्ज़मबर्ग ने कहा था:
“जो समाज एक आधी आबादी को गुलामी में रखता है, वह कभी भी सच्ची स्वतंत्रता का दावा नहीं कर सकता।”
भारत में सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, और कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी महिलाओं ने शिक्षा और श्रम अधिकारों के लिए संघर्ष किया। 1970 के दशक में एला भट्ट और महाश्वेता देवी जैसी कार्यकर्ताओं ने श्रमिक महिलाओं की समस्याओं को केंद्र में रखा।
भारतीय महिला आंदोलन ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तरों पर परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अरुणा आसफ अली और कैप्टन लक्ष्मी सहगल जैसी नेत्रियों ने न केवल आज़ादी की लड़ाई लड़ी, बल्कि श्रमिक महिलाओं को संगठित किया।
1970-80 के दशक में श्रमिक आंदोलन – इस दौर में महिला मजदूरों के अधिकारों को उजागर किया गया। काली फॉर वीमेन जैसी नारीवादी समूहों ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया।
पूंजीवाद शोषण के सभी रूपों को स्थाई बनाए रखना चाहता है, चाहे वो पितृसत्ता हो या भारतीय संदर्भ में जातिवाद। यही वजह है हम पाते हैं कि
- श्रम और आर्थिक असमानता
महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है। असंगठित क्षेत्र में श्रम सुरक्षा की कमी और दोहरे श्रम (घर और काम) का बोझ महिलाओं पर अधिक है। एंप्लॉयर महिलाओं को कमज़ोर श्रेणी का श्रमिक मानते हैं, इसका बड़ा उदाहरण आंगनबाड़ी, सहिया, आशा कार्यकर्ता, रसोईया को उनके काम के लिए न्यूनतम भुगतान है।
- कार्यस्थल और सामाजिक असुरक्षा
ठेका प्रथा और अस्थायी नौकरियाँ महिलाओं को स्थायी रोजगार से दूर रखती हैं।
कार्यस्थलों पर यौन शोषण की घटनाएँ आम हैं, और न्याय प्रक्रिया लंबी व जटिल होती है।
महिला श्रमिकों के लिए शौचालय, मातृत्व अवकाश, और अन्य बुनियादी सुविधाओं की कमी बनी रहती है।
- पूंजीवाद और पितृसत्ता का दोहरा शोषण
पूँजीवाद और पितृसत्ता मिलकर महिलाओं के श्रम का दोहरा शोषण करते हैं।
घरेलू काम को “स्वाभाविक” मानकर इसे बिना वेतन के श्रम में बदला जाता है।
औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएँ लंबे घंटे काम करती हैं, लेकिन श्रम अधिकारों से वंचित रहती हैं।
निचले तबके की महिलाओं को सबसे अधिक शोषण का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे आर्थिक रूप से असुरक्षित होती हैं।
महिला मुक्ति और श्रमिक वर्ग का संघर्ष
महिलाओं की मुक्ति केवल स्त्री-पुरुष समानता तक सीमित नहीं है; यह व्यापक सामाजिक न्याय का सवाल है। महिलाओं का संघर्ष पूँजीवाद के खिलाफ श्रमिक वर्ग के संघर्ष से जुड़ा हुआ है। जब तक महिलाओं को श्रम में समान अधिकार नहीं मिलते, तब तक श्रमिक वर्ग की मुक्ति अधूरी रहेगी।
पूँजीवादी व्यवस्था कम वेतन और असुरक्षित श्रम का लाभ उठाती है, जिसमें महिला श्रमिकों का सबसे अधिक शोषण होता है।महिलाओं की स्वतंत्रता का अर्थ केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं, बल्कि संपूर्ण श्रमिक वर्ग की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना भी है।
पितृसत्ता केवल महिलाओं को ही नहीं, बल्कि पुरुषों को भी प्रभावित करती है। पुरुषों पर “कमाने की जिम्मेदारी” का सामाजिक दबाव है, जिससे मानसिक तनाव बढ़ता है। पितृसत्ता घरेलू हिंसा और लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देती है।
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर उठाए जाने वाले कदम
- श्रम सुधार और आर्थिक समानता
समान वेतन और असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा मिले।
कार्यस्थलों पर मातृत्व अवकाश और लचीली कार्य नीतियाँ लागू हों।
- सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए
कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा उपाय बढ़ाए जाएँ। POSH अधिनियम का प्रभावी रूप से लागू किया जाए।
असंगठित क्षेत्र में महिला श्रमिकों की कानूनी सहायता और सुरक्षा बढ़ाई जाए।
- सामाजिक जागरूकता और शिक्षा
शिक्षा और डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा दिया जाए।
कार्यस्थलों और स्कूलों में लैंगिक समानता पर जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएँ।
इतिहास में महिलाओं के श्रम और योगदान को अक्सर अनदेखा किया गया है। घरेलू काम से लेकर औद्योगिक उत्पादन और बौद्धिक योगदान तक, महिलाओं की भागीदारी को हाशिए पर रखा गया। इस अदृश्यता का परिणाम यह हुआ कि युवा लड़कियाँ अपने समाज में महान बनने की आकांक्षा कम रखती हैं, क्योंकि उनके सामने आदर्श बहुत कम होते हैं।
लेकिन महिला मुक्ति केवल महिलाओं के लिए नहीं, बल्कि एक न्यायसंगत समाज के निर्माण का आधार है। जब महिलाएँ समान अधिकारों के साथ श्रम में भाग लेंगी, तो न केवल उनकी स्थिति सुधरेगी, बल्कि समाज में समग्र आर्थिक और सामाजिक प्रगति होगी। महिलाओं का संघर्ष केवल स्त्रियों का संघर्ष नहीं, बल्कि पूरे श्रमिक वर्ग का संघर्ष है।
हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं की ऐतिहासिक और समकालीन उपलब्धियों को मान्यता मिले, ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी शक्ति और संभावनाओं को पहचान सके। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस केवल एक उत्सव न होकर, महिलाओं के संघर्षों को स्वीकारने और उनके योगदान को उजागर करने का एक अवसर बने।
