जिस घर में नित्य हरि कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता :- जीयर स्वामी
जिस घर में नित्य हरि कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता :- जीयर स्वामी
बंशीधर नगर (गढ़वा):– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने श्रीमद् भागवत महापुराण कथा के दौरान कहा कि जिसका जैसा भाव होता है, उसको वैसा ही फल मिलता है। सफेद कपड़े में थोड़ी भी स्याही का दाग पड़ने से वह दाग बहुत स्पष्ट दीखता है, उसी प्रकार पवित्र मनुष्यों का थोड़ा सा दोष भी अधिक दिखलायी देता है। जिस घर में नित्य हरि कीर्तन होता है, वहाँ कलियुग प्रवेश नहीं कर सकता। जब भगवान के आश्रित हो रहे हो तो यह न हुआ, वह न हुआ आदि चिन्ताओं में मत पड़ो। विश्वासी भक्त आजीवन भगवान का दर्शन न मिलकर भी भगवान को नहीं छोड़ता। संसार कच्चा कुआँ है। इसके किनारे पर खूब सावधानी से खड़े होना चाहिए। तनिक असावधान होते ही कुएँ में गिर पड़ोगे, तब निकलना कठिन हो जायेगा ।संसारी! तुम संसार का सब काम करो; किन्तु मन हर घड़ी संसार से विमुख रखो। कामिनी और कञ्चन ही माया है। इनके आकर्षण में पड़ने पर जीवकी सब स्वाधीनता चली जाती है। इनके मोह के कारण ही जीव भव-बन्धन में पड़ जाता है। संसार मॆ रहने से सुख-दुःख रहेगा ही। ईश्वर की बात अलग है और उसके चरण-कमल में मन लगाना और है। दुःखके हाथ से छुटकारा पाने का और कोई उपाय है नहीं। साधु-संग करने से जीव का माया रूपी नशा उतर जाता है। भगवान का भजन ही जीवन का सुफल है।सुगम मार्ग से चलो और सुख से राम-कृष्ण-हरि नाम लेते चलो। वैकुण्ठ का यही अच्छा है।और समीप का रास्ता। जिस सङ्गसे भगवत्प्रेम उदय होता है वही सङ्ग सङ्ग है, बाकी तो नरक निवास संतों के द्वार पर श्वान होकर पड़े रहना भी बड़ा भाग्य है, क्योंकि वहाँ प्रसाद मिलता है और भगवान्का गुणगान सुननेमें आता है। कीर्तन का अधिकार सबको है, इसमें वर्ण या आश्रम का भेद-भाव नहीं ।
कीर्तन से शरीर हरि रूप हो जाता है। प्रेम छन्द से नाचो डोलो। इससे
देहभाव मिट जायगा।हरि कीर्तन में भगवान्,भक्त और नामका त्रिवेणी संगम होता है। प्रेमी भक्त प्रेमसे जहाँ हरिगुण-गान करते हैं, भगवान् वहाँ रहते ही हैं । तो
कीर्तनसे संसारका दुःख दूर होता है । कीर्तन संसारके चारों ओर आनन्दकी प्राचीर खड़ी कर देता है और सारा संसार महासुखसे भर जाता है । कीर्तनसे विश्व धवलित होता और वैकुण्ठ पृथ्वीपर आता है ।भगवान्के वचन हैं — मेरे भक्त जहाँ प्रेमसे मेरा नामसंकीर्तन करते हैं, वहाँ तो मैं रहता ही हूँ — मैं और कहीं न मिलूँ तो मुझे वहीं ढूँढ़ो । तेरा कीर्तन छोड़ मैं और कोई काम न करूँगा। लज्जा छोड़कर तेरे रंगमें नाचूँगा । कीर्तनका विक्रय महान् मूर्खता है । वाणी ऐसी निकले कि हरिकी मूर्ति और हरिका प्रेम चित्तमें बैठ जाय । वैराग्यके साधन बतावे, भक्ति और प्रेमके सिवा अन्य व्यर्थकी बातें कथामें न कहे । कीर्तन करते हुए हृदय खोलकर कीर्तन करे, कुछ छिपाकर- चुराकर न रखे । कीर्तन करने खड़े होकर जो कोई अपनी देह चुरावेगा, उसके बराबर मूर्ख और कौन हो सकता है।स्वाँग से हृदयस्थ नारायण नहीं ठगे जाते । निर्मल भाव ही साधन-वनका बसन्त है ।भगवान् भावुकोंके हाथपर दिखायी देते हैं, पर जो अपनेको बुद्धिमान् मानते हैं, वह मर जाते हैं तो भी भगवान्का पता नहीं पाते।
ज्ञानके नेत्र खुलनेसे ग्रन्थ समझमें आता है, उसका रहस्य खुलता है, पर भावके बिना ज्ञान अपना नहीं होता। भावके नेत्र जहाँ खुले वहीं सारा विश्व कुछ निराला ही दिखायी देने लगता है।भगवान्से मिलन होनेके लिये भाव आवश्यक है।चित्त यदि भगवच्चिन्तनमें रँग जाय तो वह चित्त ही चैतन्य हो जाता है, पर चित्त शुद्ध भावसे रँग जाय तब । जैसा भाव वैसा फल । भगवान्के सामने और कोई बल नहीं चलता ।
पत्थरकी ही सीढ़ी और पत्थरकी ही देव-प्रतिमा, परंतु एक पर हम पैर रखते हैं और दूसरेकी पूजा करते हैं। भाव ही भगवान् हैं। गङ्गा-जल जल नहीं है, बड़-पीपल वृक्ष नहीं हैं, तुलसी और रुद्राक्ष माला नहीं है, ये सब भगवान्के श्रेष्ठ शरीर हैं। भाव न हो तो साधनका कोई विशेष मूल्य नहीं ।
